Right of Private Defence ⚖️

 

प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के विषय में


96. प्रावईट प्रतिरक्षा में की गई बातें कोई बात अपराध नहीं है, जो प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के प्रयोग में की जाती है।


                           टिप्पणी


रसेल के अनुसार एक व्यक्ति अपने शरीर आवास एवं सम्पत्ति को बलपूर्वक उस व्यक्ति से प्रतिर करने में न्यायसंगत है जो जानबूझकर ऐसा सोचता है तथा उत्पात एवं विस्मय द्वारा इसमें से किसी एक के विरुद्ध अपराध कारित करता है। इन मामलों में वह पीछे हटने के लिये वाप्य नहीं है, अपितु वह तब तक अपने शत्रु का पीछा कर सकता है जब तक अपने को सुरक्षित नहीं पाता और यदि संघर्ष में वह अपने शत्रु को मार डालता है तो उसका कार्य न्यायोचित समझा जायेगा। प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार को प्रत्येक विधि प्रणाली में मान्यता प्रदान की गई है तथा इस अधिकार को सौंमा राज्य द्वारा अपने प्रजा को जान माल की राश के सामर्थ्य के विपरीत में परिवर्तित होती है। इसका कारण स्पष्ट है क्योंकि प्रजा की आन-माल अनुपात को रक्षा करने का दायित्व मुख्यतः राज्य का है, किन्तु कोई भी राज्य चाहे कितने हो विशाल उसके सामन क्यों न हो, प्रत्येक परिस्थिति में सुरक्षा प्रदान करने में समर्थ नहीं हो सकता। ऐसी हो परिस्थिति में राज्य अपनी प्रजा को यह अधिकार देता है कि वह विधि को अपने हाथ में ले और अपनी रक्षा स्वयं करे।


मेन के के अनुसार आत्म-प्रतिरक्षा की सम्पूर्ण विधि निम्नलिखित चार अवधारणाओं पर आधारित है- (1) समाज व्यक्तियों को प्रतिरक्षा का वचन देता है और अधिकतर मामलों में प्राइवेट व्यक्तियों के शरीर


एवं सम्पत्ति पर हुये अवैध आक्रमण से प्रतिरक्षा करने में समर्थ भी होता है। (2) जहाँ समाज को सहायता नहीं प्राप्त हो सकती है वहाँ व्यक्तिगत रूप से अपनी सुरक्षा हेतु सभी

आवश्यक कार्यवाहियों की जा सकती हैं।


(4) प्रयोग में लाया गया बल अवरोधित को जाने वाली क्षति के अनुपात में होना चाहिये। इसका प्रयोग


बदला लेने या ईर्ष्या की भावना से नहीं किया जाना चाहिये।


है। द्वितीय यह कि प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग उस समय नहीं किया जा सकता जब इसको माँग करने वाला स्वयं आक्रमण करता है। उत्तर प्रदेश राज्य बनाम पुसू के मामले में यह निर्णय दिया गया कि


प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार को दो महत्वपूर्ण सोमाय है। प्रथम यह कि प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार किसी भी ऐसे कार्य को न्यायोचित नहीं ठहरा सकता जो निश्चित रूप से प्रतिरक्षा नहीं है अपितु एक अपराध व्यक्ति स्वतः आक्रामक (Aggressor) है तथा जो स्वत: अपने ऊपर आक्रमण की आमन्त्रित करता है अपने आक्रामक प्रहार के कारण वह व्यक्ति प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग करने का हकदार नहीं है यदि उसके ऊपर आक्रमण होता है और वह जानबूझकर एक दूसरे व्यक्ति की हत्या कर देता। पर पहले भी प्रहार कर चुका था। इस प्रकरण में अकिलाल नामक एक व्यक्ति पर पुसू (राम किशोर) तथा उसके साले शिवराखन ने गोली चलायो। किन्तु कुछ व्यक्तियों ने पुसू को ऐसा करने से मना किया और उसको बन्दूक भी छीन लिया। परन्तु किसी प्रकार उसने के हाथ पिस्तौल छीन कर बांके लाल पर उस समय गोली चला दिया जिस समय गाँव वाले उसे घायल अवस्था में ले जा रहे थे। दुबारा गोलो लगते ही तत्काल उसको मृत्यु हो गई। लक्ष्मण साहू बनाम उड़ीसा राज्य के मामले में यह मत व्यक्त किया गया कि आत्म प्रतिरक्षा का अधिकार केवल ऐसे व्यक्ति को उपलब्ध होता है जिसे किसी आसर खतरे से अपने को बचाने के लिये एकाएक तत्काल आवश्यकता पड़ती है और जहाँ ऐसा खतरा स्वयं उस व्यक्ति सुमित नहीं है। आवश्यकता को विद्यमान, वास्तविक अथवा प्रत्यक्ष होना चाहिये। द्वारा


सुमेर सिंह बनाम सूरज भान सिंह75के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि निजी सुरक्षा के अधिकार का पता परवर्ती तथ्यों एवं परिस्थितियों से लगाया जा सकता है। (Right of private defence can always be gathered from surrounding facts and circumstances). गोरधन बनाम राजस्थान राज्य 76 के मामले में यह मत व्यक्त किया कि प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार


को सकारात्मक तथ्यों पर आधारित होना चाहिये। यह केवल अनुमानों और अटकलों पर आधारित नहीं हो


सकती। प्राइवेट प्रतिरक्षा के तर्क का मूल्यांकन करते समय अभियुक्त को लगी चोटें मात्र एक परिस्थिति है


जिस पर विचार किया जाना चाहिये। इसके अतिरिक्त शिकायतकर्ता एक पक्ष के लोगों को पहुंचाई गई चोटे और   अभियुक्त के साक्षियों को लगी चोटों का अनुपातहीन होना भी एक तथ्य है जिसे ध्यान में रखना चाहिये। अतएव प्रतिरक्षा के तर्क को मात्र इस कारण स्वीकार नहीं कर लेना चाहिये, क्योंकि अभियुक्त को नगण्य (insignificant) चोटें आयी है।


अरुण बनाम महाराष्ट्र राज्य 77 के बाद में यह अभिनिर्धारित किया गया कि प्रतिरक्षा के बचाव की उपलब्धता एक तथ्य विषयक प्रश्न है जो प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर निर्धारित किया जाना चाहिये। अभियुक्त के लिये यह आवश्यक नहीं है कि वह शब्दों द्वारा स्पष्ट रूप से यह तर्क दे कि उसने प्रतिरक्षा में कार्य किया है। यदि परिस्थितियां यह दर्शाती है कि प्रतिरक्षा के अधिकार का विधिसम्मत ढंग से प्रयोग किया गया है तो न्यायालय इस प्रकार के तर्क पर विचार कर सकती है। इस प्रकार के अधिकार के साक्ष्य प्रस्तुत करने का आभार अभियुक्त पर है। ऐसे साक्ष्य के अभाव में न्यायालय के लिये इस तर्क को सत्यता की उपधारणा (presume) करना सम्भव नहीं है। न्यायालय ऐसो परिस्थितियों के न होने की ही उपधारणा करेगा। अभियुक्त द्वारा ऐसे तर्क के पक्ष में सम्भावनाओं के पूर्व चिन्तन को दर्शाने मात्र से अभियुक्त के आभार का पालन हो जाता है। प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार अटकलों (speculation) और अनुमानों (surmises) पर आधारित नहीं हो सकता है। यह विनिश्चित करने के लिये कि क्या प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार उपलब्ध है या नहीं सम्पूर्ण घटना का परीक्षण सतर्कता और सही परिप्रेक्ष्य (setting) में करना चाहिये।


अरुण बनाम महाराष्ट्र राज्य 78 के बाद में यह सम्प्रेक्षित किया गया कि प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार मूल रूप से सम्बन्धित संविधि अर्थात् भारतीय दण्ड संहिता से परिसीमित प्रतिरक्षात्मक अधिकार है। इसको दण्डात्मक (vindictive), आक्रामक (aggressive) अथवा प्रतिशोधात्मक उद्देश्य से कारित अपराध हेतु मात्र बहाना स्वरूप तर्क दिये जाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिये। यह पता लगाने के लिये कि प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार उपलब्ध है या नहीं अभियुक्त को लगी चोटें, उसको सुरक्षा को तात्कालिक खतरा, अभियुक्त द्वारा कारित क्षतियां और ऐसी परिस्थितियाँ कि क्या अभियुक्त के पास पब्लिक अधिकारियों की सहायता प्राप्त करने का अवसर था या नहीं, सभी सुसंगत विचारणीय तथ्य हैं।


हनुमनटप्पा भिमप्पा डालाबाई और अन्य बनाम कर्नाटक राज्य 78 के बाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जब अभियुक्त यह अभिवाक करता है कि उसने अपने आत्मरक्षा अधिकार का प्रयोग करते हुए कार्य किया है तो उसे साध्य देने की आवश्यकता नहीं होती परन्तु वह अपने अभिवाक को स्वयं अभियोजन पक्ष के साक्ष्यों से प्रकट होने वाली परिस्थितियों के द्वारा सिद्ध कर सकता है। उस अभिवाकू के पक्ष में सम्भावनाओं की गुरुता दर्शाने के पश्चात् ही वह सिद्ध करने के आभार से मुक्त हो जाता है। साथ ही अभियुक्त के शरीर पर चोटों की दशा में आवश्यक रूप से यह अवधारणा नहीं की जा सकती है कि अभियुक्त ने अपनी आत्म प्रतिरक्षा के अधिकार के प्रयोग में मृतक को चोटें कारित किया है।


भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत किसी ऐसे कार्य के विरुद्ध प्रतिरक्षा का अधिकार नहीं प्राप्त है जी स्वयं इसके अधीन अपराध नहीं है।"" राजेश कुमार बनाम धर्मबीर के बाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि आत्मप्रतिरक्षा के अधिकार का दावा केवल विधिविरुद्ध आक्रमण को विफल करने हेतु किया जा सकता है परन्तु बदले की भावना से प्रतिकार के रूप में नहीं किया जा सकता है। प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के प्रयोग द्वारा किया गया कोई कार्य अपराध नहीं है, अतः दूसरे पक्ष को इसके बदले में प्रतिरक्षा का कोई अधिकार नहीं मिलता है। परन्तु यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि क्या अपराध को भी प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार उस स्थिति में प्राप्त है जहाँ कि प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार का प्रयोग करने वाला व्यक्ति से अधिक बल का प्रयोग कर अपराधी के लिये खतरा उत्पन्न कर देता है। कुछ लोगों के अनुसार उसका प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार इस सिद्धान्त द्वारा मत है कि इस अधिकार को माँग वह व्यक्ति नहीं कर सकता जो स्वयं आक्रमण करता है।" कुछ अन्य लोगों के अनुसार कसे प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार है क्योंकि दूसरा पक्षप्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार, जो विधि द्वारा प्रदन है, को सीमा पार कर सकता है तो उसका अधिकार समाप्त हो जाता है। जब तक कि उसके द्वारा प्रयुक्त यस संहिया में निर्धारित 1 सौमा के अन्दर है, आक्रमणकर्ता को प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार नहीं है किन्तु जैसे हो यह सीमा है पार की जाती है, कार्य अपराध बन जायेगा और आक्रमणकर्ता को प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार प्राप्त हो जायेगा। । उदाहरण के लिए, 'अ' 'च' के घर में चोरी करते समय 'ब' के एक कार्य के भय से भयभीत हो जाता है। 'च' वह कार्य सम्पति की रक्षा हेतु विधि द्वारा प्रदत्त प्रबेट प्रतिरक्षा के अधिकार के प्रयोग के दौरान करता है। अ' अपने को मृत्यु से बचाने के लिये 'व' को हत्या कर देता है। एक विचारधारा के अनुसार 'अ' को प्रतिरक्षा का अधिकार नहीं प्राप्त है क्योंकि उसने सार्थ आक्रमण किया। वह चोरी कार दूसरी विचारधारा के अनुसार चूंकि विधि 'च' को मृत्यु के अतिरिक्त सम्पत्ति की प्रतिरक्षा हेतु अन्य कोई अपहानि कारित करने का अधिकार देता है और 'ब' उस सीमा को पार कर गया। अत: 'अ' को के विरुद्ध प्रतिरक्षा का अधिकार प्राप्त है चोरी के मामले में'' 'अ' की मृत्यु नहीं कारित कर सकता। जैसे ही अपने अधिकार को सीमा पार करता उसका कार्य अवैध बनकरअ' को प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार प्रदान करता है। अतः यह अनुरोध किया जाता है कि पूर्ववर्ती मत अधिक उपयुक्त है।


रामराज शुक्ल बनाम मध्य प्रदेश राज्य बाद में मृतक खेत में एक भाग को दो मजदूरों के साथ जो रहा था और अभियुक्तगण भी उसी खेत के दूसरे हिस्सो को जीत रहे थे। शाम को जब और उसके मजदूर काम बन्द कर अपने पर की ओर जा रहे थे, अभियुक्तों ने उन पर हमला बोल कर एक को मार डाला। वह निर्णय दिया गया कि प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार बदला लेने का अधिकार यहाँ प्रदान करता है। अभियुक्तगण यह जानते थे कि उसी खेत के एक भाग को मृत्तक सारे दिन जोत रहा था परन्तु उन्होंने उस समय कोई कार्यवाही नहीं किया उन्होंने केवल शाम को हमला करने के लिये उपयुक्त समय चुनाइन मामले में सम्पत्ति को रक्षा के लिये नहीं वरन बदले की भावना से हमला किया गया था। यहाँ नहीं अभियुक्त और उसका भाई तैयारी के साथ आगे में जब मृतक बैलों को लेकर घर अपने वापस जा रहा था तब हमला किया। अतएव धारा 304 के खण्ड के अन्तर्गत दोषसिद्धि को अनुमोदित किया गया।


बूटा सिंह बनाम पंजाब राज्य 83 के मामल मृतक बलबीर सिंह कुल्हाड़ी, सुरिन्दर सिंह बरती, बूटा सिंह डाग नामक हथियारों से लैस में ताबा दो अन्य मीता और करनैल खाली हाथ थे। ये सभी लोग दिलीप सिंह नामक ट्रैक्टर चालक के साथ एक विवादग्रस्त खेसको जीतवाने के लिये गये थे। जब अपीलकर्ता ने मृतक और उसके साथियों को खेत जोतने का प्रयास करते हुये देखा तो उसने अपने 13 वर्षीय अवयस्क पुत्र गुरुदेव सिंह को यह कहकर भेजा कि वह ट्रैक्टर चालक को मना कर दें कि वह विवादित खेत जीते। कोन उसके बाद ट्रैक्टर चालक ने खेत जोतने से मना कर दिया। उसके मना करने के पश्चात् मृतक गया उसके । लड़के को उसके डेरे तक खदेड़ा जो कि एक ट्यूबवेल के निकट था और जहाँ पर उसके पिता साथियों ने बूटा सिंह और माता गुरबचन कौर भी उपस्थित । मृतक और उसके साथियों ने अपीलकर्ता, उसकी पत्नी तथा उसके लड़के पर आक्रमण किया। इसके परिणामस्वरूप उन लोगों ने भी अपने बचाव में हथियार उठा लिये और मृतक तथा अभियोजन पक्ष के गवाहों को चोट पहुंचा। दोनों ही पक्षकारों को चोटें आयो। उच्चतम न्यायालय में यह निर्णय दिया कि उपरीक्त तथ्यों के आधार पर यह नहीं कहा सकता है कि अभियुक्त ने अपने प्राइवेंट प्रतिरक्षा के अधिकार का अतिक्रमण किया है। आक्रमणकर्ताओं को निहत्या करने के लिये उन्हें कितनी चोट पहुंचाना आवश्यक था उसको नाप तौल करना सम्भव नहीं। अतएव अपीलकता और उसको


पत्नी ने अपनी प्रतिरक्षा में कार्य किया है और वे प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के अधिकारी हैं। विजयन बनाम राज्य के बाद में 6 व्यक्तियों को नटराजन नामक व्यक्ति को हत्या करने हेतु अभियोजित एवं विचारित किया गया था परन्तु केवल एक की दोषसिद्धि की गई और शेष को दोषमुक्त कर दिया गया। नटराजन और उसका भाई झरोड कस्बे के एक मकान में रहते थे और पेरियस उनका पड़ोसौ सा। वह और उनके बच्चे बगल के मकानों में रहते थे। अपोलांट विजयन पेरिपन्ना का एक पुत्र था। गवाह 1 कन्नास्वामी और मृतक नटराजन एक नाली, जो उपरोक लोगों के मकान की ओर जाने वाले प्राइवेट रास्ते में पड़ती थी, के ऊपर परंथर की चट्टी लगा दी थी। इस पत्थर चट्टी के निर्माण के कारण बरसात के मौसम में जलभराव हो जाता था जिससे पेरियन्ना का मकान प्रभावित होता था। अतएव उसके पुत्रों ने दूसरे पक्षकारों से इस पत्थर की चट्टान को हटा लेने के लिये निवेदन किया परन्तु उनके अनुरोध को नहीं माना गया।


15-10-1994 की सुबह अपीलांट विजयन और उसके भाइयों ने इस पत्थर चट्टों को बलपूर्वक हटा दिया। जब इस बात की जानकारी गवाह नं० कन्डास्वामी को हुई तो वह अपने भाई नटराजन और पिसा कुप्यूस्वामी के साथ पेरियन्ना के घर गया और उनके कार्य पर एतराज व्यक्त किया। इसमें आपस में विवाद बढ़ गया और इसके दौरान अपीलांट के पक्ष के एक व्यक्ति ने गवाह नं० 1 के पिता कुम्मस्वामी के गाल पर दो तमाचा मार दिया। कुछ पड़ोसियों द्वारा बीचबचाव किये जाने पर गवाह नं० 1 और उनके पक्ष के लोग अपने । प घर वापस चले गये। वह मारी घटना पूर्वान्ह घटित हुई। लगभग 2.30 बजे अपरान्ह मृतक नटराजन सड़क पर टहल रहा था। कन्डास्वामी और चेन्नियप्पन उनके पीछे पीछे चल रहे थे। जब वे लोग पेरियना के मकान के पास से गुजर रहे थे तो 6 हमलावर चाकुओं, भाला और हंसिया आदि लिये हुये घर से बाहर आये। खतरे को भांप कर नटराजन विपरीत दिशा में वापस मुड़ गया परन्तु हमलावरों ने उसका पीछा किया और धक्का देकर गिरा दिया। उसके बाद अपीलांट ने उसकी पीठ में और सीने में भी चाकू मार दिया। अपोलांट के भाई चिलाकन अभियुक्त नं० 2 ने नटराजन पर भाले से निशाना लगाया किन्तु वह उसे न लग कर अपीलाट के सर के शिखर पर जा लगा और वह भी गिर गया। नटराजन जिसे चाकू को चौट आई थी तत्काल मर गया।


बचाव पक्ष की ओर से यह कहा गया कि अपरान्ह लगभग 2.30 बजे तक नटराजन और उसका भाई गवाह नं० 1 कन्डास्वामी अन्य लोगों के एक गिरोह के साथ दोपहर के पूर्व की घटना के बदले की भावना से पेरियन्ना के घर गये। उन लोगों ने अपीलाट पर हमला किया जिसका विरोध किया गया परन्तु फिर भी उसे चोट आई। इसके पश्चात् अपीलांट और अन्य ने अपनी प्रतिरक्षा में कार्य किया। अभियोजन पक्ष की ओर से प्पन पेश किये गये और तीनों ने अभियोजन पक्ष का जैसा ऊपर तीन गवाह चन्डास्वामी चेत्रियप्पन तथा भूसप्पन पेश किये गये वर्णन किया गया है समर्थन किया। विचारण न्यायालय तथा उच्च न्यायालय ने इस साक्ष्य को स्वीकार किया। गवाह नं० 6 6 डॉ० वेलमुरुगन भी परीक्षित किये गये और उन्होंने यह मत व्यक्त किया कि पहली पोट 1 रूप से प्राणघातक थी। बचाव पक्ष की ओर से भी एक डाक्टर का परीक्षण किया गया परन्तु उसने निश्चित रूप कहा कि एक्सरे से यह सिद्ध नहीं है कि नहीं है कि अपीलांट को कोई अपिंग गंग (fracture) कारित हुआ। उसका साक्ष्य बहुत उपयोगी नहीं था। एक दूसरे साक्षी देवकी नाम की एक महिला ने बयान दिया कि वह और अनियोजन उपय गवाह नं० 3 पूसप्पन घटना अपरान्ह अर्थात 5-10-84 को एक लारों के विक्रय अभिलेख सम्बन्ध कार्यवाही में एक अन्य कस्बे सलेम में थे। एक विक्रय रसौद जिस पर अभियोजन पक्ष के गवाह नं० ॐ का हस्ताक्षर था प्रस्तुत किया गया। इस गवाह ने देवकी नामक एक महिला के साथ लारी बेंचने को बात तो स्वीकार किया परन्तु उसने उस लारी के विक्रय के सम्बन्ध में 5-10-84 को सलग जाने की बात से इन्कार किया। । जब विवेचना अधिकारी द्वारा घटनास्थल पर अपमृत्यु विचारण (Inquest) रिपोर्ट तैयार गई थी सो उस समय इस गवाह नं० 3 पूसप्पन को घटनास्थल पर उपस्थित दर्शाया गया था। विचारण न्यायालय और उच्च न्यायालय ने लारी की बिक्री रसीद पर विश्वास नहीं किया, क्योंकि यह सम्भव था कि गवाह सम्पन का हस्ताक्षर पहले कोरे कागज पर करा लिया गया हो और उस दिन अभिलेख को तैयार किया गयी आ । हो। साथ ही अपमृत्यु विचारण रिपोर्ट जो 5 बजे सायं से 8.00 बजे के मध्य दिनांक 05-10-94 को तैयार की गई थी। उसमें पूसप्पन गवाह नं० 3 को घटनास्थल पर उपस्थित दिखाया गया था। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि बिक्री रसीद मात्र इस कारण अविश्वसनीय नहीं है कि अपमृत्यु विचारण रिपोर्ट (inquest) में अभियोजन के गवाह को उपस्थित दिखाया गया था। अतएव अभियोजन पक्ष के गवाह सम्पन की घटनास्थल पर उपस्थिति सन्देहास्पद थी। यह भी कहा गया कि अभियुक्त को जो चोटें आयी थीं उनका संतोषजनक उत्तर नहीं दिया गया। अतएव बचाव पक्ष का यह तर्क कि पूर्वान्ह की घटना के परिणामस्वरूप परिवादकर्ता उनके घर पर बदले की भावना से अतिक्रमण किये, सम्भावित प्रतीत होता है। बचाव पक्ष का यह तर्फ सरकारी अभिलेखों में 3 बजे अपरान्ह अंकित हो गया था जबकि अपीलांट ने गवाह नं० 6 से ऐसा बताया था। घटना के बाद इतना शीघ्र अपीलांट के पास एक मनगढंत कहानी गढ़ने का यथोचित समय नहीं था। अभियोजन पक्ष का एक कथन कि अभियुक्त थिलाकन द्वारा भाले से किया गया चार नटराजन को न लगकर अपीलांट के सर पर लगा स्वीकार करने योग्य नहीं है क्योंकि यदि यह मान भी लिया जाय कि चिलाकन एक खराब निशानेबाज था यह विश्वास करना कठिन है कि वह लक्ष्य के बजाय दूसरे व्यक्ति के सर पर जा लगेगा जहाँ तक प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रश्न है यह अभिमत व्यक्त किया गया कि मामले के विस्तृत वर्णक्रम में ठीक ठीक इसकी नापतौल करना कठिन है कि प्राइवेट प्रतिरक्षा में ठीक ठीक कितनों चोट पहुंचाई जा सकती थी। अतएव बचाव पक्ष के प्राइवेट प्रतिरक्षा के तर्क को स्वीकार किया गया और दोषसिद्धि को निरस्त करते हुये अभियुक्त को दोषमुक्त कर दिया गया।


नरसिंह बनाम म०प्र० राज्य के बाद में यह अभिनिर्धारित किया गया कि प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार को प्राप्त करने हेतु उस अधिकार के लिये विशेष सर्व देना आवश्यक नहीं है। प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार को उपलब्धता के सबूत का भार अभियुक्त पर होता इस आधार का पालन उस तर्क के पक्ष में सम्भावनाओं के पूर्व चिन्तन मात्र को दर्शाने से हो जाता है। युक्तियुक्त सन्दह से परे सबूत की आवश्यकता नहीं होती है। यह भी इंगित किया गया कि प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रारम्भ उसी समय हो जाता है जब किसी अपराध को कारित करने के प्रयत्न धमकी से शरीर को युक्तियुक्त खतरे की आशंका हो जाता है।


जैसे ही युक्तियुक्त खतरे के भय का कारण समाप्त हो जाता है इस अधिकार का भी अन्य हो जाता है। आत्मरक्षा के अधिकार में प्रयुक्त बल को सोने के तराजू में नहीं तौला जाना चाहिये। ऐसी परिस्थितियों को अधिक शक्ति के चश्मे या सूक्ष्मदर्शी यन्त्र से मात्र मामूली या सीमान्त उल्लंघन का पता लगाने की दृष्टि से नहीं वरन व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाना चाहिये।


किसी आत्मरक्षा में किये गये कार्य के विरुद्ध आत्म प्रतिरक्षा का अधिकार नहीं होता है- पम्मी बनाम स्टेट आफ मध्य प्रदेश के बाद में अपीलांट एक अपने खराब व्यवसायी भागीदार के घर एक अन्य भागीदार के साथ गया। भागीदारों में लेखा के बारे में आपस में विवाद चल रहा था। अपीलोट का ग्रुप के० के० जायसवाल के घर देर लेखों का निपटारा हिसाब करने गये और वे शस्त्रों से लैश भी थे। मृतक ने पक्षकारों को समझाने बुझाने और संतुष्ट करने का प्रयास किया परन्तु इस ग्रुप ने मृतक पर गोली चला दी और वह मर गया एक दूसरा व्यक्ति भी घटनास्थल पर पहुँच गया और अपीलॉट ने उस पर भी गोली चलाई। बाद में पुलिस ने अपीलांट को पकड़ लिया। अभियुक्त ने अपने बचाव में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 96 के अधीन आत्म प्रतिरक्षा के अधिकार के आधार पर तर्क दिया जो सेशन न्यायालय द्वारा मान्य किया गया परन्तु उच्च न्यायालय द्वारा उसे अमान्य कर दिया गया। उच्चतम न्यायालय ने अपील को खारिज करते हुये उच्च न्यायालय निर्णय की उचित माना और यह अभिनिर्धारित किया कि जो स्वयं आक्रमणकर्ता है वह स्वयं अपने बचाव में प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का दावा नहीं कर सकता है क्योंकि अपीलोट स्वयं रात्रि के समय के०के० जायसवाल के घर में घुसने के कारण अतिचार का दोषी है और वह भी दूसरे के घर अस्त्र शस्त्रों से लैश होकर जाना अपने आप में आक्रमण का कार्य है। अब किसी आत्मरक्षा में किये गये। कार्य के विरुद्ध आत्म प्रतिरक्षा के अधिकार का दावा नहीं किया जा सकता है।


चाको एवं अन्य बनाम केरल राज्य के बाद में मृतक सीमन घटनास्थल पर गहामा के साथ पहुँचा था। सोमन वहाँ तब पहुँचा जब उसने देखा कि उसका भाई शस्त्रधारी हमलावरों से घिरा हुआ धीर संकट में फंसा था। यह निर्णीत किया गया कि कोई भी आक्रामक (aggressor) मात्र इस आधार पर कि मृतक घटनास्थल पर गंडासे के साथ पहुँचा, प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का दावा नहीं कर सकता है विशेषकर तब जबकि यह सिद्ध हो चुका हो कि मृतक वहाँ तब पहुँचा जब उसने यह पाया कि उसका भाई शस्त्रधारी हमलावरों से घिरा हुआ है। 

रिजान बनाम छत्तीसगढ़ राज्य 88 वाले मामले में यह अभिकथन किया गया था कि अपीलार्थी अभियुक्तों ने घायल पर कुल्हाड़ी और लाठी से प्रहार किया था, जब कि सह-अभियुक्तों ने भी उसे लाठी से मारा था अपीलार्थियों द्वारा किये गये प्रहार को बाबत विश्वसनीय साक्ष्य है। अभियुक्त को चोटें आई थी और अभियोजन यह स्पष्ट नहीं कर सका कि अभियुक्त को चोट कैसे आई। अभियुक्त ने व्यक्तिगत प्रतिरक्षा में कृत्य करने का अभिवचन किया। यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभियुक्त व्यक्तिगत प्रतिरक्षा के अभिवचन को अभियोजन साक्ष्य से प्रकट होने वाली परिस्थितियों के प्रति निर्देश से ही सिद्ध कर सकता है। ऐसे मामले में अभियोजन साक्ष्य के सही प्रभाव के मूल्यांकन का प्रश्न उठता है और अभियुक्त र को किसी प्रकार (बाध्यता) से छूट देने का प्रश्न नहीं उठता। जब व्यक्तिगत प्रतिरक्षा के अधिकार का अभिवचन किया जाता है। तो यह युक्तियुक्त और संभाव्य तथ्य होने चाहिये, जिससे न्यायालय का यह समाधान हो सके कि अभियुक्त द्वारा पहुँचाई गईं हानि या तो किये गये हमले को सुरक्षा प्रदान करने के लिये अथवा अभियुक्त की और से युक्तियुक्त आशंका को प्रकट करने के लिये की गई थी। व्यक्तिगत प्रतिरक्षा के अभिवचन को सिद्ध करने का भार अभियुक्त पर होता है और उस अभिवचन के पक्ष में संभाव्यताओं को गंभीरता को अभिलेखीय साध्य के आधार पर दर्शित करने से उस भार का निर्वहन हो जाता है। यह पता लगाने के लिये कि व्यक्तिगत अभिरक्षा का अधिकार उपलब्ध है या नहीं, अभियुक्त को आई क्षत्तियों, उसकी सुरक्षा पर आसन्न संकट, अभियुक्त द्वारा कारित क्षतियों और परिस्थितियाँ जिनमें लोक प्राधिकारियों की सहायता ली जा सकती थी या नहीं, सुसंगत तथ्य है, जिन पर विचार किया जा सकता है। इस प्रकार अपने घर तक भाग कर जाना और वहाँ तबली उठाकर मृतक पर प्रहार करना व्यक्तिगत सुरक्षा का आश्रय लेने का मामला नहीं है। इन तथ्यों में हत्या करने की मंशा स्पष्ट है और मामले को व्यक्तिगत प्रतिरक्षा के दायरे से बाहर लाते हैं।


नवीन चन्द्र बनाम उत्तरांचल राज्य 89के मामले में यह अभिधारित किया गया कि प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रयोग करने के लिये पूरी घटना का परीक्षण सतर्कता पूर्वक किया जाना चाहिये और सही सन्दर्भ में समझा जाना चाहिये। अभियुक्त के शरीर में चोटों को पाये जाने मात्र से इस अधिकार के उपलब्धता को उपधारणा नहीं की जा सकती है। अभियोजन पक्ष द्वारा अभियुक्त के शरीर पर पाई जाने वाली चोटों का स्पष्टीकरण न देने से सभी मामलों में अभियोजन का मामला प्रभावित नहीं होता है।


यह भी अभिधारित किया गया कि अभियुक्त के द्वारा प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का स्पष्ट तर्क दिया जाना आवश्यक नहीं है। परन्तु यदि यह तर्क दिया जाता है तो सबूत का भार अभियुक्त पर होगा और यह सम्भाव्यता की प्रबलता (Preponderance) दर्शाने से भार से उन्मुक्त माना जाता है। अभियुक्त को अपने इस बचाव को युक्तियुक्त सन्देह से परे सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है।


Comments

Post a Comment

Popular posts from this blog

विधि के छात्रों को बड़ी राहत देते हुए BCI ने एक नया नियम बनाया है

बहराइच दरगाह के जेठ मेले पर रोक मामले में हाईकोर्ट से राहत नहीं

बाराबंकी में सालार साहू की दरगाह पर नही लगेगा मेला