1. राज्यों का संघ
संविधान में भारत के प्रभुत्वसम्पन्न लोकतान्त्रिक गणराज्य को 'राज्यों का संघ" घोषित किया गया है। विभाजन के पश्चात् सुदृढ़ केन्द्रयुक्त संघ (federation) की स्थापना का उद्देश्य राजनीतिक एवं प्रशासनिक दोनों ही रहा है, फिर भी संविधान को पूर्णरूपेण संघात्मक नहीं बनाया जा सका। संविधान सभा के अनुसार संघ को 'फेडरल' कहना आवश्यक नहीं था। संविधान का प्ररूप प्रस्तुत करते हुए प्ररूप-समिति के अध्यक्ष डा० अम्बेडकर ने कहा था कि "यद्यपि यह संविधान संरचना की दृष्टि से फेडरल हो सकता है, किन्तु कुछ निश्चित उद्देश्यों से समिति ने इसे 'संघ' (Union) कहा है

जैसा कि संविधान सभा में कहा गया था, ये उद्देश्य दो तथ्यों की ओर संकेत करते हैं - (अ) अमेरिकी संघवाद की भाँति भारत का संघवाद संघ की इकाइयों के बीच परस्पर करार का परिणाम नहीं है, (ब) राज्यों को स्वेच्छानुसार संघ से पृथक् होने का अधिकार नहीं दिया गया है। डा० अम्बेदकर ने संघ शब्द का आशय इस प्रकार व्यक्त किया है – “यद्यपि भारत को एक संघ होना था, लेकिन यह संघ राज्यों के बीच हुए करार का परिणाम न था और न किसी राज्य को संघ से पृथक् होने का अधिकार ही दिया गया है। भारत एक संघ (Union) है, जो कभी समाप्त नहीं होगा। यद्यपि प्रशासन की सुविधा के लिये सम्पूर्ण देश और इसके निवासी एक ही स्रोत से उद्भूत सर्वोच्च शक्ति के अधीन रहने वाले व्यक्ति हैं। "राज्यों को इस संघ से पृथक् होने का कोई अधिकार नहीं है।” इसको स्थापित करने के लिये अमरीकियों को एक गृहयुद्ध का सामना करना पड़ा था तब जाकर कहीं उनका संघ (फेडरेशन) अविनाशी (indestructible) बन सका। संविधान निर्माताओं ने इसे प्रारम्भ से ही स्पष्ट कर देना उचित समझा जाता है।
संघ का नाम 'इण्डिया' अथवा 'भारत' है। प्रथम अनुसूची में विनिर्दिष्ट इसके सदस्यों को राज्य कहा
2. भारत का राज्य-क्षेत्र
(1) राज्यों के राज्य-क्षेत्र, (2) संघ राज्य-क्षेत्र, और (3) सरकार द्वारा अर्जित राज्य-क्षेत्र ।
संविधान के सातवें संशोधन अधिनियम, 19565 के पूर्व संघ से सम्बद्ध राज्यों की चार श्रेणियाँ थीं- प्रथम अनुसूची में भाग 'अ', 'ब' और 'स' राज्य आते थे और अर्जित किये गये राज्यक्षेत्रों को भाग 'द' में रखा गया था। इस प्रकार संविधान के सातवें संशोधन अधिनियम, 1956 के प्रवर्तन के समय भाग 'अ' में 10 राज्य, 'ब' में 8, 'स' में 9 और 'द' में राज्य सम्मिलित थे।
संविधान संशोधन अधिनियम, 1956 ने उपर्युक्त तीनों वर्गों को समाप्त कर दिया और संघ के अधीन सभी राज्यों को राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 के द्वारा एक ही स्तर प्रदान कर दिया। इस अधिनियम ने राज्यों की उक्त चार श्रेणियों को समाप्त कर राज्यों की केवल दो श्रेणियाँ ही रखी हैं। वर्तमान भारत के राज्य-क्षेत्र निम्नलिखित हैं-
संघ
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राज्य अर्जित कियेगए क्षेत्र
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1. आन्ध्र प्रदेश 1. दिल्ली
2. असम 2. अंडमान-निकोबार द्वीपसमूह
3. बिहार 3. लक्षद्वीप
4. गुजरात 4. दादर और नागर हवेली और दमन दीव
5. केरल। 5. पुडुचेरी
6. मध्य प्रदेश 6. छत्तीसगढ़
7. तमिलनाडु 7. जम्मूकश्मीर
8. महाराष्ट्र। 8. लद्दाख
9. कर्नाटक (मैसूर)
10. [ ओडिशा]
11. पंजाब
12. राजस्थान
13. उत्तर प्रदेश
14. पश्चिम बंगाल
15. नागालैण्ड
16. हरियाणा
17. हिमाचल प्रदेश
18. मणिपुर
19. त्रिपुरा
20. मेघालय
21. सिक्किम
22. मिजोरम
23. अरुणाचल प्रदेश'
24. गोवा
25. छत्तीसगढ़
26. उत्तराखण्ड
27. झारखण्ड
28. तेलंगाना
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जम्मू-कश्मीर राज्य-संप्रभुता का कोई अवशेष नहीं- राष्ट्रपति द्वारा 6 अगस्त, 2019 को अनुच्छेद 370 के अधीन घोषणा करके इसे निष्प्रभावी किये जाने के पूर्व जम्मू-कश्मीर राज्य का भारत के संविधान से बाहर संप्रभुता का कोई भी अवशेष नहीं था, और इसका अपना संविधान भारत के संविधान के अध्यधीन था। यह राज्य इस भाव में संप्रभु नहीं था कि यहां के निवासी स्वयं में पृथक् एवं सुभिन्न वर्ग गठित करते थे। भारत के संविधान तथा जम्मू-कश्मीर के संविधान की स्थिति समान नहीं थी। भारत के संविधान का अनुच्छेद 1 तथा जम्मू-कश्मीर के संविधान की धारा 3 से स्पष्ट था कि जम्मू-कश्मीर भारत का अविच्छिन्न भाग था। जम्मू कश्मीर के स्थानीय निवासी भारत के नागरिक थे और उनकी दोहरी नागरिकता नहीं थी। 7
अनुच्छेद 370 के अधीन राष्ट्रपति की 2019 की घोषणा के बाद जम्मू और कश्मीर राज्य को ऐतिहासिक कारणों के आधार पर लागू विशेष प्रावधान समाप्त हो गये हैं ।
संघ राज्य क्षेत्रों का प्रशासन राष्ट्रपति अथवा उसके द्वारा नियुक्त किसी प्रशासक द्वारा किया जायेगा,
जब तक कि संसद् विधि द्वारा कोई अन्य व्यवस्था न कर दे। राष्ट्रपति किसी राज्य के राज्यपाल को किसी
निकटवर्ती (adjoining) संघ राज्य क्षेत्र का प्रशासक नियुक्त कर सकता है। इस प्रकार नियुक्त प्रशासक के
रूप में राज्यपाल अपने कृत्यों को अपनी मन्त्रिपरिषद् से स्वतन्त्र रूप से प्रयोग करे (अनुच्छेद 239)।
'संघ राज्य क्षेत्र' पदावली के अन्तर्गत भारत सरकार द्वारा किसी समय अर्जित राज्य-क्षेत्र सम्मिलित हैं। किसी देश द्वारा किसी अन्य राज्य-क्षेत्र की अभिप्राप्ति की सामान्य रीतियाँ, अर्पण, दखल, पराभव, अभिप्राप्ति और भोगाधिकार हैं। भारत द्वारा अर्जित राज्य-क्षेत्र संघ में अनुच्छेद 2 के अन्तर्गत नये राज्य के रूप में गठित किया जा सकता है अथवा अनुच्छेद 3 (क) या 3 (ख) के अन्तर्गत किसी वर्तमान राज्य में सन्निविष्ट किया जा सकता है।
3. नये राज्यों का प्रवेश या स्थापना
अनुच्छेद 2 के अन्तर्गत संसद ऐसे निर्बन्धनों और शर्तों के साथ, जिन्हें वह उचित समझे, संघ में नये राज्यों का प्रवेश या स्थापना कर सकती है। इस प्रकार अनुच्छेद 2 के अधीन संसद को दो प्रकार की शक्ति प्राप्त है प्रथम, नये राज्यों को संघ में शामिल करने की शक्ति, द्वितीय, नये राज्यों को स्थापित करने की शक्ति। पहले का सम्बन्ध उन राज्यों से है जो पहले से ही विद्यमान हैं। दूसरा उन राज्यों से सम्बन्धित है जो भविष्य में स्थापित या अर्जित किये जा सकते हैं।
भारत डामीनियन में भारतीय राज्यों का अधिमिलन- भारत डामीनियन में भारतीय राज्यों के अधिमिलन से इन राज्यों का अस्तित्व समाप्त नहीं हुआ था। वास्तव में वे संघटक (constituent) राज्यों के रूप में पूर्व ब्रिटिश भारत के प्रान्तों सहित भारत डामीनियन के भाग हो गये। यह नहीं कहा जा सकता कि जो राज्य भारत डामीनियन में अधिमिलन कर गये थे उनका अस्तित्व पूरी तरह समाप्त हो गया था। दिनांक 25-4-1949 को ट्रावनकोर और कोचीन राज्यों का एक साथ विलयन यह स्थापित करता है कि जिन भारतीय राज्यों ने भारत डामीनियन में अधिमिलन किया था उनका अस्तित्व बना रहा।
यह ध्यान देने की बात है कि नये राज्य का प्रवेश या उसकी स्थापना ऐसे निबन्धनों और शर्तों के अनुसार किया जाएगा जिन्हें संसद उचित समझे। यहाँ पुनः हमारा संविधान अमेरिका और आस्ट्रेलिया के संविधान में अन्तर रखता है। उक्त दोनों संविधानों में राज्यों की समानता का सिद्धान्त अपनाया गया है। अमेरिका में प्रत्येक राज्य सीनेट के लिये समान संख्या में अपने प्रतिनिधि भेजता है। प्रत्येक राज्य सीनेट में दो प्रतिनिधि भेजता है। संघ में कांग्रेस द्वारा शामिल किये गये राज्यों के विषय में भी समानता का सिद्धान्त लागू होता है।2 राज्यों के विधानमण्डल और साथ-ही-साथ कांग्रेस की सम्मति के बिना संघ के अधीन राज्यों की सीमाओं में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता है।

यह पहले ही बतलाया जा चुका है कि अमेरिकी 'फेडरेशन' विभिन्न स्वतन्त्र राज्यों के बीच हुए करार का परिणाम है। इसलिए राज्यों के विधानमण्डलों की सहमति के बिना करार में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया जा सकता है, लेकिन भारतीय 'फेडरेशन' स्वतन्त्र राज्यों के बीच हुए करार का परिणाम नहीं है। भारतीय संघ में शामिल होने वाली इकाइयाँ उस अर्थ में प्रभुतासम्पन्न और स्वतन्त्र नहीं थीं जिस अर्थ में अमेरिका 'फेडरेशन' के पहले उसके उपनिवेश थे। संविधान के लागू होने के समय अथवा उसके पश्चात् संविधान के अनुच्छेद 3 के अन्तर्गत स्थापित किसी वर्तमान राज्य व किसी नये राज्य को भारतीय संघ में शामिल किये जाने पर संविधान द्वारा उन्हें एक स्तर नहीं प्रदान किया गया है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 2 के अन्तर्गत संसद् को ऐसी शर्तों एवं दशाओं के अधीन नये राज्यों को भारतीय संघ में शामिल करने और स्थापित करने की पूरी छूट है, जिसे वह उचित समझे।
किसी नये राज्य को स्वीकृत करने या वर्तमान राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन करने के पश्चात् उसे प्रभावी बनाने के लिए संसद् सामान्य बहुमत द्वारा संविधान में आवश्यक परिवर्तन कर सकती है। उपर्युक्त उद्देश्य की पूर्ति के लिए संसद द्वारा पारित कोई भी विधि अनुच्छेद 368 के प्रयोजन के लिए संविधान का संशोधन नहीं समझी जायेगी
4. नये राज्यों का निर्माण और वर्तमान राज्यों के क्षेत्रों, सीमाओं या नामों का बदलना
अनुच्छेद 3 के अन्तर्गत संसद् को नये राज्यों की स्थापना एवं वर्तमान राज्यों के क्षेत्रों, सीमाओं या नामों में परिवर्तन करने की शक्ति प्राप्त है। अनु० 3 के अधीन राज्यों की स्थापना निम्नलिखित रीतियों से की जा सकती है-
(1) किसी वर्तमान राज्य से उसका प्रदेश अलग करके; अथवा
(2) दो या अधिक राज्यों को मिलाकर अथवा
(3) किसी राज्यों के भागों को मिलाकर; अथवा (4) किसी प्रदेश को किसी राज्य के साथ मिलाकर ।
संसद् अनु० 3 के अधीन (1) किसी राज्य का क्षेत्र बढ़ा सकती है, (2) किसी राज्य का क्षेत्र घटा सकती है, (3) किसी राज्य की सीमाओं को बदल सकती है, (4) किसी राज्य के नाम को बदल सकती है। अनुच्छेद 3 के अन्तर्गत नये राज्यों की स्थापना वर्तमान राज्यों के भागों को मिलाकर की जा सकती है जबकि
अनुच्छेद 2 के अन्तर्गत नये राज्यों की स्थापना नये राज्य-क्षेत्र को अर्जित करके की जा सकती है। अनु० 3 में प्रयुक्त राज्य शब्द के अन्तर्गत संघ राज्य-क्षेत्र सम्मिलित हैं।
इस प्रकार भारतीय संविधान राज्यों के क्षेत्रों और सीमाओं को, बिना उनकी सहमति एवं सम्मति के परिवर्तित करने का अधिकार संसद को प्रदान करता है। संसद् सामान्य बहुमत से विधि बनाकर नये राज्यों की स्थापना कर सकती है और वर्तमान राज्यों के क्षेत्रों, सीमाओं और नामों में परिवर्तन कर सकती है। ऐसी विधि बनाने की निम्नलिखित शर्तें हैं- प्रथम, किसी नये राज्य के निर्माण या वर्तमान राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन के लिए कोई भी विधेयक बिना राष्ट्रपति की सिफारिश के संसद् के किसी सदन में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है। द्वितीय, यदि विधेयक द्वारा किसी राज्य के क्षेत्र, सीमा और नाम में परिवर्तन प्रस्तावित है तो राष्ट्रपति उक्त राज्य के विधान-मण्डल को विधेयक विचारार्थ भेजेगा। विधानमण्डल को राष्ट्रपति द्वारा निर्धारित समय के अन्दर अपने विचारों को व्यक्त करते हुए विधेयक को वापस कर देना चाहिये। राष्ट्रपति उक्त अवधि को बढ़ा भी सकता है। यदि राज्य विधानमण्डल, जिसको कि विधेयक भेजा गया, इस प्रकार निर्धारित या बढ़ी हुई अवधि के भीतर विधेयक पर अपने विचार व्यक्त नहीं करता तो राष्ट्रपति विधेयक को संसद् में प्रस्तुत कर सकता है। यदि निर्धारित या बढ़ी हुई अवधि के अन्दर राज्य विधानमण्डल अपना विचार उस विधेयक पर व्यक्त कर देता है तो भी संसद् राज्य विधान मण्डल के विचारों को स्वीकार करने या उसके अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य नहीं है। भविष्य में किसी भी समय प्रस्तावित और स्वीकृत विधेयक में संशोधन के लिए राज्य विधानमण्डल को नये सिरे से निर्देश देना आवश्यक है। 2
इस प्रकार उपर्युक्त अनुच्छेद' संविधान की नमनशीलता की ओर संकेत करते हैं। एक सामान्य बहुमत अथवा सांविधानिक प्रक्रिया द्वारा संसद एक नये राज्य का निर्माण कर सकती है या वर्तमान राज्यों की सीमाओं आदि में परिवर्तन कर सकती है। इस प्रकार भारत का राजनीतिक एवं भौगोलिक मानचित्र भी बदल सकती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय संविधान में प्रान्तों का अस्तित्व ही केन्द्रीय सरकार की इच्छा पर निर्भर है। यद्यपि यह व्यवस्था संघीय संविधान की परम्परा के सर्वथा विपरीत है, किन्तु ऐसे उपबन्धों के संविधान में समाविष्ट करने के अनेक कारण हैं जिनका विस्तृत विवेचन अगले अध्याय में किया गया है।
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