एक बूढ़ी दादी और उनका बीमार पोता

 एक बूढ़ी दादी और उनका बीमार पोता: एक मार्मिक कहानी

गांव के एक छोर पर टूटी-फूटी झोपड़ी में रहने वाली बूढ़ी दादी, चंपा, की ज़िंदगी का सहारा था उसका सात साल का पोता, अर्जुन। बेटे-बहू की एक सड़क दुर्घटना में मौत के बाद, चंपा ही अर्जुन के लिए मां, बाप और दादी तीनों बन गई थी। खुद की उम्र अस्सी के पार, आंखें धुंधली, शरीर कमजोर, पर दिल में अपने पोते के लिए ममता का महासागर था। 

चंपा का गुज़ारा गांव वालों के दिए हुए चावल, दाल और कुछ पुराने कपड़ों से होता था। कुछ लोग मंदिर में बचा हुआ भोग दे जाते, तो कभी-कभी गांव की महिलाओं से थोड़ी बहुत मजदूरी मिल जाती। लेकिन उसका सारा ध्यान सिर्फ एक बात पर रहता — अर्जुन को भूखा न सोना पड़े।

अर्जुन एक होशियार और संस्कारी बच्चा था। लेकिन पिछले कुछ महीनों से उसकी तबीयत बिगड़ने लगी थी। वह जल्दी थक जाता, पेट में दर्द की शिकायत करता और कई बार बेहोश भी हो जाता। गांव के वैद्य ने कहा था कि अर्जुन को 'अंदर की कमजोरी' है, और इलाज के लिए उसे शहर के अस्पताल ले जाना होगा।

चंपा के पास अस्पताल जाने के लिए किराया भी नहीं था। वह रोज मंदिर के बाहर बैठ जाती, भगवान से मिन्नतें करती, “हे भगवान’ मेरे पोते को ठीक कर दो। उसकी जगह मेरी सांसें ले लो, लेकिन उसे बचा लो।”

एक दिन, अर्जुन की हालत बहुत बिगड़ गई। वह बिस्तर से उठ नहीं पा रहा था, और उसके होंठ नीले पड़ गए थे। चंपा की आंखों से आंसुओं की धारा बह निकली। उसने अर्जुन को गोद में उठाया, एक पुराना कंबल लपेटा और पैदल ही शहर के अस्पताल की ओर चल पड़ी — 15 किलोमीटर की दूरी, बूढ़े पैरों और कांपते घुटनों के साथ।

रास्ते में लोग उसे देखते रहे, कुछ ने दया दिखाई, तो कुछ ने ताना मारा, “इतने बूढ़े में ये झंझट क्यों पाल रखी है? अनाथालय में छोड़ देती तो अच्छा होता।” लेकिन चंपा के दिल में बस अर्जुन की सलामती की चिंता थी।

शहर पहुंचने में उसे पूरा दिन लग गया। अस्पताल पहुंचकर वह डॉक्टरों से मिन्नतें करने लगी, “बाबू, मेरा बच्चा मर रहा है। इलाज कर दो, पैसे बाद में दे दूंगी।” डॉक्टरों ने जांच की और पाया कि अर्जुन को गंभीर लिवर की बीमारी है। इलाज के लिए हजारों रुपए चाहिए थे।

चंपा के पास कुछ नहीं था। उसने अस्पताल के बाहर बैठकर भीख मांगी। दो दिन में वो मुश्किल से 200 रुपए जुटा पाई। अस्पताल वालों ने कह दिया, “बिना एडवांस इलाज नहीं होगा।”


हार मानकर चंपा भगवान के मंदिर के सामने बैठ गई और जोर-जोर से रोने लगी। उसी वक्त एक सज्जन व्यक्ति, जो वहां पूजा करने आए थे, चंपा की हालत देखकर रुके। उन्होंने पूरी बात सुनी, अर्जुन को देखा और तुरंत मदद का हाथ बढ़ाया।

वह व्यक्ति शहर का एक प्रसिद्ध व्यापारी निकला, जिसकी खुद की बेटी एक साल पहले लिवर की बीमारी से मरी थी। अर्जुन में उसे अपनी बेटी की झलक दिखी। उसने न केवल अर्जुन का इलाज करवाया, बल्कि चंपा को रहने के लिए एक छोटा कमरा भी दिलवाया और हर महीने की मदद भी शुरू कर दी।


अर्जुन का इलाज करीब तीन महीने चला। धीरे-धीरे उसकी तबीयत में सुधार आया। जब वह फिर से चलने और मुस्कुराने लगा, तो चंपा के चेहरे पर वर्षों बाद सच्ची खुशी लौटी।

अर्जुन ने पढ़ाई शुरू की और अपने सपनों को पकड़ने की ठान ली। चंपा रोज शाम को उसके साथ बैठती, उसे कहानियां सुनाती, और ईश्वर को धन्यवाद देती, “तूने मेरा अर्जुन बचा लिया, मेरी दुनिया बचा ली।” वक्त बीतता गया। अर्जुन बड़ा हुआ, पढ़-लिखकर डॉक्टर बना। जिस अस्पताल में उसका इलाज हुआ था, वहीं उसने नौकरी ज्वॉइन की। पहले ही महीने की तनख्वाह से उसने दादी के लिए एक सुंदर घर बनवाया और उनके पैर छूकर कहा,

“दादी, आपने मुझे मौत के मुंह से निकाल कर फिर से जीना सिखाया। अब मैं हर उस बच्चे के लिए लड़ूंगा जिसे कोई चंपा दादी नहीं मिली।”


यह कहानी सिर्फ एक बूढ़ी दादी और उसके पोते की नहीं है, यह कहानी है उस अटूट ममता, संघर्ष और प्रेम की, जो दुनिया के हर कोने में किसी चंपा और अर्जुन के रूप में मौजूद है। जब तक ऐसे रिश्ते जिंदा हैं, तब तक इंसानियत भी जिंदा है।



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